देखकर ज़माने को मुस्कुरा रहा हूँ मैं
दाद दो, के दुनिया से दिल लगा रहा हूँ मैं
दिन में तो निगाहें थी नींद से भरी, लेकिन
रात भर न जाने क्यों जागता रहा हूँ मैं?
ज़िन्दगी बताती हैं के तेरा नहीं कोई
बस इसी लिए ख़ुद को आज़मा रहा हूँ मैं
ठीक है के दरवाज़ा बंद कर लिया, लेकिन
किस लिए दरीचों से झाँकता रहा हूँ मैं?
खत्म हो गया रिश्ता उस गली से कब का पर
उस गली में ख़ुद को ही ढूँढता रहा हूँ मैं
चीख़ती हुई आहें तो कभी जला सा दिल
अपने आप में बनके क़ाफ़िला रहा हूँ मैं
ग़ौर कर के भी अब के ध्यान में नहीं आया
आईने में जो चेहरा देखता रहा हूँ मैं
हर तरह से वाक़िफ़ तो हूँ 'अभी' मगर फिर भी
ज़िन्दगी से जाने क्यों चौंकता रहा हूँ मैं?
- अभिजीत शेट्टी